बिल्लेसुर बकरिहा

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‘बिल्लेसुर’ नाम का शुद्ध रूप बड़े पते से मालूम हुआ-‘बिल्वेश्वर’ है। पुरवा डिवीजन में, जहाँ का नाम है, लोकमत बिल्लेसुर शब्द की ओर है। कारण पुरवा में उक्त नाम का प्रतिष्ठित शिव हैं। अन्यत्र यह नाम न मिलेगा, इसलिए भाषातत्त्व की दृष्टि से गौरवपूर्ण है। बकरिहा जहाँ का शब्द है, वहां बोकरिहा कहते हैं। वहां बकरी को बोकरी कहते हैं। मैंने इसका हिन्दुस्तानी रूप निकाला है। ‘हां’ का प्रयोग हनन के अर्थ में नहीं। पालन के अर्थ में है।
बिल्लेसुर जाति के ब्राह्मण, ‘तरी’ के सुकुल हैं, खेमेवाले के पुत्र खैयाम की तरह किसी बकरीवाले के पुत्र बकरिहा नहीं। लेकिन तरी के सुकुल को संसार पार करने की तरी नहीं मिली तब बकरी पालने का कारोबार किया। गाँववाले उक्त पदवी से अभिहित करने लगे।

हिन्दी भाषा साहित्य में रस का अकाल है, पर हिन्दी बोलनेवालों में नहीं; उनके जीवन में रस की गंगा-जमुना बहती हैं; बीसवीं सदी साहित्य की धारा उनके पुराने जीवन में मिलती है। उदाहरण के लिए अकेला बिल्लेसुर का घराना काफी है। बिल्लेसुर चार भाई आधुनिक साहित्य के चारों चरण पूरे कर देते हैं।
बिल्लेसुर के पिता का नाम मुक्ताप्रसाद था; क्यों इतना शुद्ध नाम था, मालूम नहीं; उनके पिता पण्डित नहीं थे। 

मुक्ताप्रसाद के चार लड़के हुए, मन्नी, ललई, बिल्लेसुर, दुलारे। नाम उन्होंने स्वयं रक्खे, पर ये शुद्ध नाम हैं। उनके पुकारने के नाम गुणानुसार और-और हैं। 

मन्नी पैदा होकर साल भर के हुए, पिता ने बच्चे को गर्दन उठाये बैठा झपकता देखा तो ‘गपुआ’ कह पुकारना शुरू किया आदर में ‘गप्पू’।


 दूसरे लड़के ललई की गोराई रोयों में निखर आयी थी, आँखें भी कंजलोचन, स्वभाव में बदले-बदले, पिता ने नाम रक्खा भर्रा, आदर में ‘भूरू’। 

बिल्लेसुर के नाम में ही गुण था; पिता ‘बिलुआ’ आदर में ‘बिल्लू’ कहने लगे। दुलारे अपना ईश्वर के यहाँ से खतना कराकर आये थे, पिता को नामकरण में आसानी हुई, ‘कटुआ’ कहकर पुकारने लगे, आदर में ‘कट्टू’।

अभाग्यवश पुत्रों का विकास देखने से पहले मुक्ताप्रसाद संसार बन्धन से मुक्त हो गये।

 उनकी पत्नी देख-रेख करती रहीं। पर वे भी, पीसकर, चौका टहल कर, कण्डे पाथकर, ढोर छोड़कर, रोटी पकाकर, छोटे से बाग के आम-महुए बीनकर, लड़कों को किसानी के काम में लगाकर ईश्वर के यहाँ चली गयीं।

 उनके न रहने पर चारो भाइयों की एक राय नहीं रही। विवाद काम में विघ्न पैदा करता है। फलतः चार भाइयों की दो टोलियाँ हुईं। 


मन्नी और बिल्लेसुर एक तरफ हुए, ललई और दुलारे एक तरफ, जैसे सनातनधर्मी और आर्यसमाजी। कुछ दिन इसी तरह चला। 


फिर इसमें भी शाखें फूटीं जैसे वैष्णव और शाक्त, वैदिक और वितण्डावादी। फिर सबकी अपनी डफली और अपना राग रहा।

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